Saturday, October 5, 2019

Maithili Book Critics by Dilip Kumar Jha

                                                                           अकाल में उत्सव- पंकज सुबीर

कएक बर्खक पछाति हिन्दीक कोनो नव उपन्यास पढ़बाक अवसर भेटल।उपन्यास अछि "अकाल में उत्सव",लेखक छथि श्री पंकज सुबीर।शिवना पेपर बैक्स जिला सीहोर,म.प्र सँ प्रकाशित भारतीय किसानक स्थिति परिस्थितिपर विचार करैत बहुत विलक्षण उपन्यास अछि। उपन्यास पढ़ैतकाल सहजहि कालजयी कृति गोदानक चित्र मानसमे नाच' लगैत अछि।गोदान जे स्वतंत्रता सँ पूर्ब१९३६ मे लिखल गेल आ प्रस्तुत उपन्यास२०१६ मे आयल अछि।दूनू फराक भावभूमिमे लिखल गेल अछि मुदा गोदानक होरी आ अकाल में उत्सवक राम प्रसादक स्थितिमे कोनो विशेष अन्तर नहि भेल अछि। होरीक जीवन संघर्ष करैत ,कष्ट भोगैत समाप्त भ' जाइत अछि मुदा राम प्रसाद के त' आत्महत्या करय पड़ैत छैक। की भेलै आजाद भेला सँ किसान के? ककरा लेल क' रहल अछि एतेक प्राणोत्सर्ग? सरकार आ समाजक लेल धनसनि।संवेदन शून्यताक स्थिति त' इएह अछि जे अकाल पड़ौ वा अबौ बाढ़ि उत्सवधर्मी समाजकें एहि सँ कोन फर्क !अन्न नै भारतमे उपजतै त' दोसर देश सँ आबि जेतै मुदा बात एतेक आसान नहि छैक।जेँ किसान आ किसानी एखनधरि बाँचल अछि, ओहिपर एतेक नितराहटि अछि। भारत सँ भारतीय पद्धतिक किसानीक समाप्तिक संग भारतीय संस्कार आ संस्कृतिक अन्तिम अध्याय लिखबामे बेसी समय नहि लागत। उपन्यासक एखन धरि नौ संस्करण भ' चुकल अछि ,लोकप्रियता एहि सँ आँकल जा सकैछ। लेखक केँ बधाइ।शुकामना।

हिन्दी रुपान्तरण

----------------- कई बर्षों के बाद हिन्दी में कोई कायदे का उपन्यास पढ़ने को मिला। हिन्दी के चर्चित लेखक श्री पंकज सुबीर द्वारा लिखित 'अकाल में उत्सव' एक विलक्षण उपन्यास है। शिवना पेपरवैक्स ,सीहोर,मध्य प्रदेश से प्रकाशित प्रस्तुत उपन्यास भारतीय किसान और किसानी का पूरा शल्यक्रिया करने में सक्षम हुआ है।लेखक बधाई के पात्र हैं। उपन्यास को पढ़ते समय प्रेमचन्द का उपन्यास गोदान और उसका पात्र होरी बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींचता है।१९३६ में प्रकाशित गोदान और२०१६ में प्रकाशित इस उपन्यास के पात्र राम प्रसाद में सहज ही तुलनात्मक अध्ययन करना पड़ता है।कहाँ खड़ा है आज भारत का ?होरी तो पीड़ा भोगते हुए स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त करता है परन्तु राम प्रसाद को आत्महत्या करना पड़ता है,आत्महत्य!
आजादी के सत्तर बर्षो के बाद कहाँ खड़ा है भारत का किसान? किसान पुत्र होने के नाते मैं इतना कह सकता हूं कि खेती -बाड़ी ही हमारा मूल है यदि बँचा सकें तो हमें बँचा लेना चाहिए किसानी ,भारतीयता के संग। खेती तो बदले रूप में रहेगा ही जिसमे भारत का किसान नहीं होगा ।भारत का किसान नहीं होगा तो हमरी सांस्कृतिक पहचान नहीं होगी।कहने का अर्थ हमारे होने न होने का कोई अर्थ नहीं होगा।
एक अच्छी उपन्यास के लिए मैं पंकज सुबीर जी को बधाई देता हूं।आदरणीया उषा दीदी को धन्यवाद देता हूं जिन्होने मुझे इस उपन्यास को पढ़ने की सलाह दी ।



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